लफ़ाड़िया चाँद
थके पानी के बुलबुले
दुत्कारते हैं उसे,
जो दूसरों की हर संधि में बोझ हुआ,
तीसरा सा
सतह की हर झिल्ली
लतियाती है उसे,
जो फेफड़े की हर धौंक में
जकड़े है अब भी,
डूबते सूरज का वो अधजला हिस्सा,
जिसकी प्रचंडता में ही
उसकी शीतलता का मूल था
आसमान से गिरा
हाथ में अटका अपने ही,
पृथ्वी के परे, तिकोन का तीसरा कोना,
वो लफ़ाड़िया,
उसे पता है सूरज निकलेगा नहीं कल
क्षितिज के नीचे
दिशाओं की हर संधि में पानी बरसेगा,
शरीर कई जानवरों के गिरेंगे छपाक,
दिशा बद्ध, पड़ेंगे सर पर
ओलों की तरह तड़ाक
बरसता रहेगा पानी,
डूबता,
सम्भलता,
खुलता,
बंद होता,
जैसे आदि सिर्फ एक फेफड़ा हो
सांस की भंवर में अटका,
और अंत उस फेफड़े में गोते लगाता,
डूबता,
सम्भलता,
खुलता,
बंद होता,
वही ज़िद्दी लफ़ाड़िया चाँद
उसे पता है
तिकोन के एक कोने में अधमरी धरा,
मरते हुए सूरज से मांगेगी आग,
उस ही की तरह कल,
उसे पता है वो मरेगा नहीं कल,
हर संधि एक भंवर है कल,
अपने हाथों में पकडे शून्य में विलीन !
आदि, फिर आदि
अंत, फिर आदि
जलते धुंए की राख़ पियेगा
और जियेगा,
रिसती कीचड से लपेटेगा गला अपना,
और जियेगा,
हर बुलबुला साँस पीता सागर हो जैसे,
हर चिंगारी, ज़िन्दाइयत का एहसास
लौट लौट कर आएगा वो,
पलट पलट के निकाला जायेगा वो,
लफ़ाड़िया, लतियाया, बेआबरू चाँद,
वो मरेगा नहीं कल,
देखना !