अख्तर उल ईमान
मेरे लिए वो अख्तर बाबा थे. सड़क के किनारे चाय के साथ ककड़ी और सिंघाड़ा खिलाने वाले, अख्तर बाबा.जब पहलेपहल उनको जाना, उनकी नज्में उन्ही की ज़ुबानी सुनी, एक नहीं, कई-कई बार सुनी. मुझे नहीं पता था कि वो सुनना मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में ताउम्र गूंजेगा और कितनी बार पन्ने और मेरे बीच उसकी लय सरसरायेगी. उनकी आवाज़ में, बीच-बीच में एक मुस्कराहट आती थी, जो थोड़ी नाराज़ हुआ करती थी – समाज से, अपने साथ के कई लिखने वालों से, आजादी के बाद के देश के बदहालों से. लेकिन मुझे वो नाराज़गी, न-उम्मीद कभी नहीं लगी. उनका गुस्सा एक मीठा उलाहना हुआ करता था और उनका प्यार एक मीठी टीस. उनके लिए शायर एक ‘आवाज़’ था – जिसमें मज़लूम का रोना और गुस्सा दोनों शामिल थे, पर एक अहसास की बिना पर, एक व्यक्तिगत अफ़साने की सूरत में, एक नारे की शक्ल में क़तई नहीं.
वो हमारी मुलाक़ातों में मुझे उर्दू सिखाने की कोशिश करते रहे, मैं काहिल हँस कर कहती रही, ‘Baba, I don't have the time right now!’ वो दिन थे, और आज का दिन - मैं कमअक्ल चाह-चाह कर भी उर्दू पढ़ना नहीं सीख पाई.
फिर मैंने कुछ समय के लिए देश छोड़ दिया, अगली बार मिली तो वो काफ़ी बीमार थे, बोले - 'तुम न आतीं तो शिकायत होती!' कविता पाठ तो नहीं हुआ, हाँ, ज़िन्दगी पर तब्सिरा हुआ और कुछ नसीहतें. उसके बाद वापस आयी तो अब वो थे ही नहीं.
मेरे लिए वो अंग्रेज़ी और उर्दू दोनों के सबसे अज़ीम शायरों, और मेरी ज़िन्दगी के सबसे प्यारे इंसानों में से एक थे.
उनकी बहुत सी नज्में मेरे साथ-साथ चलती हैं, कुछ दो-तीन शामिल कर रही हूँ. अफ़सोस, कि आप में से ज़्यादातर लोग इसे सफेद स्क्रीन पर काली तहरीर सा देखेंगे, और उसके अन्दर जाने की कोशिश करेंगे. मैं आप तक उनकी वो आवाज़ नहीं पहुंचा पाऊंगी, जो मेरे कानों में अब भी वैसे ही गूंजती है, जैसे के तब, जब उन्होंने इन्हें मेरे सामने पहली बार पढ़ा था.
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तुम्हारे लहजे में जो गर्मी ओ हलावत है
उसे भला सा कोई नाम दो वफ़ा की जगह
ग़नीम-ए-नूर का हमला कहो अंधेरों पर
दयार-ए-दर्द में आमद कहो मसीहा की
रवाँ-दवाँ हुए ख़ुश्बू के क़ाफ़िले हर-सू
ख़ला-ए-सुब्ह में गूँजी सहर की शहनाई
ये एक कोहरा सा, ये धुँद सी जो छाई है
इस इल्तिहाब में, इस सुर्मई उजाले में
सिवा तुम्हारे मुझे कुछ नज़र नहीं आता
हयात नाम है यादों का, तल्ख़ और शीरीं
भला किसी ने कभी रंग-ओ-बू को पकड़ा है
शफ़क़ को क़ैद में रक्खा सबा को बंद किया
हर एक लम्हा गुरेज़ाँ है, जैसे दुश्मन है
न तुम मिलोगी न मैं, हम भी दोनों लम्हे हैं
वो लम्हे जा के जो वापस कभी नहीं आते!
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इस भरे शहर में कोई ऐसा नहीं
जो मुझे राह चलते को पहचान ले
और आवाज़ दे ओ बे ओ सर-फिरे
दोनों इक दूसरे से लिपट कर वहीं
गिर्द-ओ-पेश और माहौल को भूल कर
गालियाँ दें हँसें हाथा-पाई करें
पास के पेड़ की छाँव में बैठ कर
घंटों इक दूसरे की सुनें और कहें
और इस नेक रूहों के बाज़ार में
मेरी ये क़ीमती बे-बहा ज़िंदगी
एक दिन के लिए अपना रुख़ मोड़ ले
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शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-रवाँ
जो कभी संग-ए-गिराँ बन के मिरे सर पे गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर
जो कभी उक़्दा बना ऐसा कि हल ही न हुआ
अश्क बन कर मिरी आँखों से कभी टपका है
जो कभी ख़ून-ए-जिगर बन के मिज़ा पर आया
आज बे-वासता यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं!
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